मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

वे मासूम ....






बस अड्डे पर सब अपनी अपनी बस की प्रतीक्षा कर रहे थे बस आती 4 उतरते 8 चढ़ते बस यही आवाज आई मेरी आंखें भी रास्ते पर लगी थी बार-बार घड़ी देखती इतने में एक मासूम खिलखिला हर्ट उस बोरियत को तोड़तोड़ा देखती हूं 56 छुटकू छुटकू मौजा ढीला पड़ा है पानी की बोतल वस्ते से बाहर निकलने को आतुर बाल बिखरे हुए बिना किसी लाग लपेट के खिलता हुआ चेहरा अपनी मस्ती में मशगूल लुका छुपी खेल रहे हो अरे अरे क्या कर रहे हो मैंने आवाज लगाई लेकिन उन्हें किसी की क्या परवाह बस बेवजह हँसना , खुश रहना उन्हें उनकी प्रवृत्ति है मैं सोचती रही इनकी सुरक्षा मायने नहीं रखती क्या इन्हें सुविधाएं नहीं चाहिए पर बस इस पर का जवाब नहीं मिला देखते ही देखते उन्होंने हाथ दिखाया भैया हमें लिस्ट दे दो ना 123 24 साल के लड़के ने बाइक रोकी उनके बैग सामने रखें और तीनों भी गाड़ी पर लग जाए जैसे भगवान ने उनकी मुराद पूरी कर दी युवक भी अपने बच्चों की तरह ला तेरा बस्ता दे दे और यह कहकर प्रमुखता से उठा रहा था देखते देखते उन्मुक्त पंछी की तरह फुरर  अब मेरा मन उन 2 बच्चों की तरफ था ये कैसे जाएंगे देखती क्या हूं जैसे ही दूसरी बाइक आई बिजली किसी गति से लपके और वही हाथ दिखा दिया दोनों चल गए बाइक रुकी दोनों चल गए और चल दिए अपनी मंजिल पर मैं सोचती रही हालात हर समस्या से जूझना सिखा देते हैं बड़े तो वजह बेवजह तनाव का लबादा ओढ़े घूमते रहते हैं

दोष किसका ....







आज तो रविवार  है ...हाथ में चाय का प्याला लिए रश्मि  बड़े इत्मीनान से चाय पीने के मूड में थी क्योंकि दफ़्तर पहुँचने की जल्दी तो थी नहीं आज| अन्यथा रोजाना चाय पी थोड़ी जाती है बस गटकी जाती है | बालकनी में हरे-भरे पौधों के बीच चाय पीना बहुत सुख पहुँचाता है उसे | आज भी वह ऐसे ही जौली मूड में थी | उसने   अखबार उठाया था कि आँखें दुनियादारी की कारगुजारी को टटोलने लगी | ‘मोमजामे में लिपटा शिशु’ पढ़ते ही इस तरह उछली मानों बिच्छू ने डंक मारा हो
उसके होठ बुदबुदाए हे भगवान ! फिर वह  झल्ला उठी पालना ही नहीं तो आखिर क्यों किसी के अपराधों की सजा नन्हीं जान भुगते | यदि चूहों या कुत्तों ने उस शिशु को .. बस काँप गई वह ,बदन सिहर उठा उफ़! रश्मि घृणा और दर्द से तड़प उठी | दोनों हाथों से सर पकड़ लिया | चाय तो कसैली हो ही चुकी थी |  अतीत के पर्दों से कुछ धुंधलायी सी टीस उठी और वक्त की मुट्ठी से यादें रिसने लगीं |
गंगू ताई एक किशोरी को लेकर रश्मि के घर पहुँची थी | पान से रंगें होठ फैलाए “मेमसाहब यह किरण है|” गाऊं से काम करने के वास्ते यहाँ आई है | काम सोब आता है एकदम झकास काम करेगी |ये मेरी गारंटी है | उसने अपने भारी शरीर को सरकाया और बोली – आठ पढ़ी भी है | चित्रगुप्त की तरह सारा चिठा खोलने के बाद वहीँ बैठ गई | गंगू ताई  का भी जवाब नहीं फुरसत में होती है तो मुहल्ले की रिपोर्ट ऐसे पेश करती है कि टी.आर.पी. बढ़ाने वाले चैनलों को भी मात दे | एक कप चाय उदरस्त करने के बाद उसकी जबान धीमी गति के समाचारों  में बदल जाती फिर खुद को ढोती हुई ओझल हो गई | मेहनतनामा करार होने के बाद किरण ने काम शुरू कर दिया | किरण का आना एक सुखद एहसास था क्योंकि वह हर काम बड़े सलीके से तो करती ही थी | ईमानदार इतनी कि चाहे सोना रखा रहे उसकी बला से | धीरे-धीरे उसने सारे काम सीख लिए | समय की पाबंद इतनी कि घड़ी की सुई के साथ चले | किरण के कदम यौवन की दहलीज पर पड़े ही थे कि उसका रूप निखरने लगा | काले लम्बे केशों में  गजरा लगाना उसे बहुत प्रिय था | फूलवाले की आवाज पर उसके कान खड़े हो जाते |  उसकी इच्छा देखकर रश्मि ने कई बार उसे गजरा लेकर दिया था | तब उसके गुलाबी रंग पर हलकी की सी ललाई छा जाती और कृतज्ञता के उसके हाथ जल्दी-जल्दी चलने लगते | जाते वक्त यही कहती ‘आप बहुत अच्छी हैं’ | रश्मि प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देती | रश्मि को तो उसकी आदत सी पड़ गई थी|

  गाँव से आए हुए किरण को दो वर्ष हो गए थे |अब तो वह थोड़ी थोड़ी अंग्रेजी  भी जान गई थी | उसकी मेहनत और अच्छे व्यवहार की खुशबू कालोनी में फ़ैल गई | इस तरह कई घरों में उसे काम मिल गया | माथे पर बिंदी और उसके नीचे  देवी का कुमकुम लगाना वह कभी नहीं भूलती | वक्त का पंछी उड़ता चला जा रहा था | धीरे धीरे किरण कमनीय काया  पीले भांडे में बदलने लगी | अब उसका गुनगुनाना मौन हो चला था | उल्लास ने मानो मौन ओढ़ लिया हो | हर जवाब में हूँ हाँ |  मुस्कराहट तो कहीं दूर ख़ुशी खोजने चली गई | काम की  व्यस्तताओं के कारण उसके परिवर्तित रूप पर संदेह तो हुआ पर ध्यान ही नहीं दिया| वैसे भी  शहरों में किसी के पर्सनल जीवन में झाँकने  को फूहड़ता का परिचायक माना जाता है आखिर वह नौकरानी ही तो है | 

कई दिनों से किरण आई नहीं | रश्मि को यह अच्छा नहीं लगा | वह सोचने लगी - सारा काम पसरा पड़ा है और कल तो मेहमानों को भी आमंत्रित किया है और कुढ़ने लगी वह | ये लोग होते ही ऐसे हैं जरा सा काम ज्यादा क्या मिल गया बस काम चोरी शुरू | हाथी  के दांत खाने के और दिखाने के और | रश्मि  झुंझला उठी | उसका ध्यान फोन पर गया और झट से  फ्लेट नंबर २०९  में फोन लगाया | हैलो आंटी क्या रश्मि आई आपके यहाँ | जवाब आया नहीं भई मैं भी उस महारानी का ही इन्तजार कर रही हूँ | दो महीने का एडवांस भी दे दिया है | जी अच्छा | रश्मि किरण के न आने से दुखी जरुर थी पर वह उसकी बुराई नहीं सुन सकती थी | अब उसका माथा ठनका | आखिर क्या हुआ होगा | उसका सिर झन्ना उठा | टिनटिन की  दरवाजे पर दस्तक | रश्मि लपकी कि किरण ही आई होगी लेकिन पड़ोस से मिसेज वर्मा ने गृहप्रवेश किया, लो आसमान से गिरे खजूर में अटके | अब तो एक दो घंटा चुगली की वेदी पर होम हुआ ही मानिए|


रश्मि ने जबरदस्ती में हाथ जोड़ अभिवादन किया | वे  दांत दिखाते हुए सोफे पर पसर गईं| मैं चाय लाती हूँ आप बैठिए कहकर रश्मि रसोई की तरफ मुड़ी |  चाय का पतीला चढ़ाया | मन रह-रह कर किरण के बारे में सोच रहा था |  मिसेज वर्मा ने चाय का प्याला थामते हुए कहा जानती हैं, मोहल्ले में आपकी किरण का उजास ही उजास है | रश्मि का मुँह खुला रह गया किरण का  ? और नहीं तो क्या | उन्होंने जोर से चाय सुड़की | और धीमे से कहने लगी अरे वह तो पेट से है | रश्मि के पैरों तले की जमीन खिसकी | लेकिन ... बस इतना ही कह पाई | सिंदूर से भरी माँग के नीचे अट्ठनी वाली साइज की बिंदी को ठीक करते हुए बोलीं छोड़ो जी न जाने कितने घरों में ‘काम’ फिर भोंडी सी मुस्कराहट | रश्मि को  किरण के बारे में ऊलजलूल बातें सुनना पसंद नहीं था | रश्मि ने कहा बुरा न मानना पर मुझे बाजार जाना है | हाँ-हाँ मुझे भी कहाँ फुर्सत है ? राम-राम आजकल की लडकियाँ..|

रश्मि ने धड़ाम से किवाड़ लगाया लडकियाँ ही क्यों ? हर अपराध का ठीकरा लड़की के सिर |लड़का क्यों नहीं ?  वह आँखें बंद कर सोचने लगी | क्या किरण ने ...| नहीं यह नहीं हो सकता | उसे याद आई वो साँझ | जब किरण घबराई सी लिफ्ट के पास टकराई थी, अरे किरण! हांफ क्यों रही हो ? क्या हुआ यह चोट कैसी ?
कुछ नहीं | भर्राई सी आव़ाज | कुछ नहीं मैडम | बस समय अपनी रफ्तार से चलता रहा | किरण को  काली साँझ ने घेर लिया .... पिताजी के इलाज के लिए वह शहर में नौकरी करने आई थी | क्या हम प्रतिष्ठित रईस नामधारी लोग किसी को सहारा दे सकते हैं नहीं किसी को कलंकित करना वो भी बेदाग़ होकर वाह! इज्जतदार लोग बस इतना ही कह पाई वह | दूधवाले की आवाज़ से चौंकी ! आती हूँ भैया | मन भीगा सा कह रहा था वो मोमजामे में लिप्त शिशु मज़बूरी तो ... फिर भी जीव क्या करे ?  
उफ़! दोनों ओर अमानवीयता | बुदबुदाती हुई नहाने चली गई | आँखों का पानी पानी संग मिल गया | छककर रोई वह | और कर भी क्या सकती थी ?





प्रवासीघाट ...




                                                      


 ‘पंख होते तो उड़ आती रे .......|’ इस गीत की कल्पना मानो आज पूरी हो रही थी, क्योंकि सुमी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था | वह आसमान में उड़ान भर रही थी जैसे ही उसकी नजर नीचे पड़ी, ऐसा लगा कि सागर ने धरती को आगोश में ले रखा है | यहाँ के चप्पे - चप्पे पर कुदरत का जादू छाया हुआ है | हवाई यान ने बादलों से लुका-छीपी करते  हुए  माँरिशस की धरा पर कदम रखा तो शीतल बयार के झोंको ने स्वागत किया | समुद्र हिलोरें लेकर ख़ुशी जाहिर कर रहा था | 
दूर-दूर तक नीला साफ़ पानी पसरा हुआ था जिसमें आसमान उतरा हुआ सा नजर आ रहा था |सुमी बुदबुदाई कि हम धरती पर हैं या आसमानी चटाई पर |  प्रकृति के इस अनुपम सौन्दर्य पर सब मंत्रमुग्ध थे | आँखें नैसर्गिक अद्भुत सौन्दर्य का रसपान कर तृप्त ही नहीं हो रही थीं | सुमी बॉडर फिल्म का गाना  गुनगुनाने लगी... मेरे भाई ,मेरे हमसाये ..| यह तो एक अहसास था जिसे केवल संचय किया जा सकता था | 
 ऐसा लगा कि यहाँ तो सवर्ग ही उतर आया है | 

सुमी  ‘स्टूडेंट एक्सचेंज प्रोग्राम’ के सिलसिले में छात्रों संग मारीशस आई थी|  वह प्रकृति मदमाते सानिध्य में लीन थी |
 मैम उल्लास भरी आवाज़ ने उसकी तंद्रा भंग की | देखा तो लेबोदानी  कॉलेज के शिक्षक उनके स्वागत में खड़े हैं, उन्होंने प्रेम सौहाद्र से स्वागत किया | फोटो और सैल्फी की रस्म के बाद सभी ने फ्रेश होकर  नाश्ता किया | सुमी ने सभी छात्रों के साथ शिक्षकों का धन्यवाद किया | इतने में वहाँ के उपप्राचर्य श्रीमान देबीदास जी ने कार्यक्रम की रुपरेखा बताई जिसमें सबसे पहले प्रवासी घाट जाने का निश्चय किया गया था |

 हमारे छात्र  मारीशस के छात्रों  के साथ घुलमिल गए  थे | यह उनकी निश्चलता ही है कि वे बहुतजल्दी परायेपन की दीवार तोड़ देते हैं |सभी  खूब मस्ती करने लगे | वहाँ के शिक्षकों के रोम-रोम से आतिथ्य सत्कार तथा सौहाद्र की भीनी भीनी खुशबू आ रही थी| क्रियोल,अंग्रेजी और हिंदी के मिले-जुले संगम में गोते लगाते हुए हम प्रवासी घाट पहुँचे | 

वहाँ बड़े – बड़े जहाज मोटी-मोटी जंजीरों से बंधे थे | मन में  विचार कौंधा कि अंग्रेजों ने जिन्हें रोटी के टुकड़े का लालच देकर सदा के लिए गिरमिटिया करार दे दिया था | उनके जीवन की पीड़ा का साक्षी है यह ‘प्रवासी घाट’ | 

सभी छात्र एक दूसरे से नई - नई जानकारी ले रहे थे | इस कार्यक्रम का उद्देश्य ही था कि परस्पर जानकारी लें,पढ़ें, तथा एक दूसरे की संस्कृति को जानें और समझें | ग्लोबोलाइजेशन अर्थात वेदों की पुकार ‘उदारचरितानांतु वसुधैव कुटुम्बकम्’ यही तो है |
 कल सुमी यहाँ की कुदरती खूबसूरती की कायल हो रही थी ,पर आज यहाँ  प्रवासी घाट पहुँच कर उसका मन कसैला सा हो आया | उसके होट बुदबुदाए प्रवासी...घाट | वह अप्रवासी घाट को ऐसे निहारने लगी मानो सोए हुए इतिहास को जगाने लगी हो | 

 अचानक उसकी नज़र उन बंदियों की मूर्तियों पर पड़ी जो बेजान होते हुए भी फिरंगियों की क्रूरता की कहानी कह रही  थीं | वह पास जाकर देखने लगी | ओह! कितनी पीड़ा है इनकी आँखों में .... | आखिर क्यों आए होंगे ये यहाँ ? फिर उसका ध्यान हाथ में गन्ने की पाली की ओर गया, सोचा चखूँ तो सही  सुना है, मॉरिशस का गन्ना बहुत मीठा होता है लेकिन यह क्या ? गन्ने से लाल रस निकल रहा है, हाथ चिपचिपासा गया | मन में कुछ कुलमुलाया कि यह कैसा रस ...? तभी कुछ फड़फड़ाया .. और हलकी सी हँसी और फुसफुसाहट  सुनाई दी | इतने में सांकल सरकी और दरवाज़ा चरमराया कि खिड़की खड़की | 

सुमी के माथे पर पसीना छलका, वह घबरा गई | उसने अपने  चौड़े माथे पर छलके पसीने को रुमाल से पोंछा और चाँद से चेहरे की खूबसूरती का पैगाम देती उसकी काली लट जो गाल पर आ गई थी, उसे यों झटका कि सब भ्रम है और नीली साड़ी पर सफ़ेद फूलों को संभालती बेपरवाही से आगे बढ़ी ही थी कि एक मरी, गरीब फटी-सी फुसफुसाती आवाज़ उसके कानों से टकराई | जैसे कई बोरों तले दबा कोई बाहर निकलने को छटपटा रहा हो  

सुमी ने गर्दन उधर घुमाई तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गई, उसकी नीली आँखे फटी की फटी रह गई, कि चीथड़े में लिपटी एक मूरत बोल उठी .... “तुम छपरा से आई हो .... छपरा सारण जिला बिहार |” सुमी को काटो तो खून नहीं उसकी  घिघी बंध गई| उसके गुलाबी  होटों पर पपड़ी सी जम गई | सारे शरीर में सिहरन दौड़ गई  | काँपते हुए उसने  हाँ में गर्दन हिलाई कि अगला प्रश्न अपनेपन की चासनी में डूबा हुआ था ... तुम छपरा के दधिची आश्रम के पास रहती हो ना ? सुमी कुछ कहती कि हसरत भरी आवाज पर  वह सम्मोहित थी |  वहाँ.. कार्तिक मास की पूर्णिमा को मेला भरे है, सब मिलकर गीत गाते हैं और तो और नाचे हैं,झूमे हैं | 

फिर थोड़ी सी चुप्पी और एक आह !..  सुमी को  कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या है यह सब  किंतु एक सम्मोहन था उस आव़ाज में जो उसे  बाँध रहा था | उसने फिर कहा, डरो नहीं आज सदियों बाद मैं तुममें  अपने को  देख रही हूँ | हाँ  तुम्हारे से मेरे गाँव की मिट्टी की सोंधी सुगंध आ रही है .. मैं अपने गाँव के गलियारे से  मिल रही हूँ | अहा! मेरा कोई आया है ..| मैं कुछ सम्भली और पूछा .. लेकिन तुम क..कैसे जानती हो मुझे |
भारी जंजीरे सरकी लगा कि वह मेरे करीब आ रही है, और करीब | हलकी सी हँसी और वह फ़ुसफुसाई मैं भी छपरा गाँव की ही हूँ ना ! उस माटी की महक की चाहत रह गई है मुझे .. ..| फिर आवाज़ कड़की |उसने कहाँ अरे ! तुम कल बाग़ बाग़ हो रही थी ना, यहाँ की धरती को देखकर |  एक लम्बी सी साँस जैसे घायल साँप फुफ़कारा हो | इस बार आवाज़ रुआंसी सी हो आई और फिर कहने लगी ...  इस पहाड़ को हमने, हाँ हमने चीरा है| भूखे-प्यासे रहकर और गोरों के कोड़े खाकर |

 दुनिया हमें गिरमिटिया कहती है |  यह नाम नहीं है हमारा| यह तो अंग्रेजों का दिया हुआ  वह घाव है जो आज भी सालता है हमें | सुमी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी वह अपनी सुध से परे बस सुन रही थी | हवा का एक झोंका कंटीली झाड़ी सा चुभता चला गया | मन में एक हूँक सी उठी कि क्यों आए आप लोग यहाँ ? इस पर उसकी आँखों में पीड़ा झलक आई मानों मैंने उसकी  दुखती रग छू दी हो | “ अरे दो जून रोटी की भूख घेर लाई यहाँ | गोरों ने हमें सब्जबाग दिखाया था | सोना पाने के जाल में फँस गए हम सब | सोना तो दूर चैन की नींद न सो पाए हम | अँधा क्या चाहे दो आँखे हम भी रोटी की आस में छोड़ आए अपना घर-परिवार,खेत – खलियान, गली-गलियारा, पीपल की छइय्याँ सब कुछ | 

पेट की आग बहुत बुरी होती है भई ! गाँव के गाँव हो लिए पीछे इन काले पेट के गोरों संग | यहाँ कोरे कागज पर अंगूठे के निसान लगवा  लिए हरामजादों ने | हर साल हजारों मजदूर अमीरी के सपने लेकर आने लगे अपनों को छोड़ | शर्त यह कि पाँच बरस तक वापस नहीं जा सकते | फिर क्या था भूख प्यास से परेसान मज़बूरी ने हमें मजदूर बना दिया, गिरमिटिया मजदूर | गरीबी, लाचारी बेरोजगार हिन्दुस्तानी एक कौर रोटी और दो कपड़ो के लिए एक बार छल कपट के जाल में फंसे तो फंसकर यही के रह गए | हम गाँव के गाछ - बिरछ को तरस गए, मय्यर बाबा से बिसर गए  फिर एक लम्बी उसाँस .... | 

सुमी को लगा कि एक दुःख भरी दांस्ता है यह | उसने फिर कहा जानती हो  भूख -प्यास से बैचेन हमारे कुछ लोग बीमार पड़ गए | एक व्यंग भरी मुस्कान बीमार इनके किस काम के भला  ? बस क्या था समुद्र में फेंक दिए गए उफ़! बस इतना ही निकला सुमी के  मुँह से | उसकी बातों में अपने देश की फिज़ाओं को पाने की ललक साफ देखी जा सकती थी  सुमी सोच रही थी कि इंसान कहीं भी चला जाए वह अपने वतन की मिट्टी और अपने इतिहास के पन्नों को नहीं भूलता | फिर .. ? अब सुमी ने पूछा | बस काम, काम, काम | जरा सा सुस्ताई लो तो कोड़ों की बौछार | 

देखो ना आज भी लील छपी है हमारे बदन पर | कोई मजदूर मुँह  खोले तो नगें बदन पर चीनी छिडक चीटियों के बिल पर लिटा दिए जाते थे | सुमी सिहर उठी अचानक उस कोठरी से बाहर नजर पड़ी तो  देखा आसमान में लाली छा गई थी | समझना मुश्किल था कि यह सूर्यास्त का संकेत ही है या फिर आज गिरमिटियों की आत्माएँ क्रोध और दुःख में झुलस रही हैं |
 और क्या होता था ...? पता नहीं क्यों सुमी ने न चाहते हुए भी पूछ ही लिया | वह कहने लगी, लडकियों को हमार सामने छीन के ले जाते और  दुर्गति कर नाला में फेंक देते | और तो और यहाँ सादी पर पाबंदी थी, बोली पर पहरा था सोच पर चाबुक | और वह अकुला उठी | सन्नाटा चीखता हुआ पसर गया चारों ओर|

कुछ देर बाद जलते रेगिस्तान में पानी की दो बूंद पाकर हरी हुई तबियत से कहने लगी | हम सब अपने साथ रामायण लाए थे |तुलसी मैया का चौरा भी | रामजी का बनवास तो पूरा हुआ पर हमारा  बनवास कभी पूरा नहीं हुआ |
बीमार होने का हक़ किसी को नहीं था |भूख प्यास से तड़पते  रहो और काम करो | एक दिन काम नहीं किया तो दो दिन के पैसे कट जाते | इनाम में मिलता उपवास |

और आदमी की चाम सूख जाती तो उसे जंगली जानवर का निवाला बना दिया जाता था, वह बोले जा रही थी मानो अपनी पीड़ा अपनों संग बाँटना चाहती हो |उसकी आँखों में पैनापन था, जीभ पर तलवारी धार | कहने लगी “अरे मारिसस की खूबसूरती की दुनिया इतनी बात करे है ना!  ई हमारे  (भारत) खून पसीना से सिंची जमीन है | यहाँ की माटी के कण - कण में हमारे रकत की बूंद है| पहाड़ों की छाती चीर कर हमने नदियाँ बहाई है |यह काले पानी की नदी हमारे खून पसीने का सबूत है|” सुमी सदियों पुराने चीथड़े इतिहास के  झरोकों में झाँक रही थी,और भीतर और भीतर | फिर सुनाई पड़ा एक पैगाम ....

 बिटिया तुम छपरा जाओगी तो  हमारी  माटी, हमारे दरख्तों को हमारा परनाम कहना | हाँ हैं.. कुछ कहते नहीं बना जीभ तालू से चिपक गई आवाज़ गले की दहलीज पर अट गए |
अचानक जोर से किसी ने हिलाया अरे ! आप यहाँ हैं कितनी देर से आपका इन्तजार हो रहा है | चलिए | हैं, हाँ- हाँ... जैसे सपने से जागी हो |
और हवा का जोरदार झोंका आया, मानो कह रही हो अलविदा !!!